नई दिल्ली, 6 अक्टूबर। जब एक फिल्म में दमदार संवाद, बेहतरीन अभिनय और सशक्त किरदार होते हैं, तो वह दर्शकों के दिलों में बस जाती है। ठीक चालीस साल पहले, 7 अक्टूबर 1985 को रिलीज हुई फिल्म 'आखिर क्यों' ने इसी तरह का प्रभाव छोड़ा। यह केवल एक ड्रामा फिल्म नहीं थी, बल्कि उस समय की बॉलीवुड फिल्मों में महिला सशक्तिकरण और भावनाओं की नई परिभाषा पेश करने वाली फिल्म थी। स्मिता पाटिल ने इस फिल्म में जो भूमिका निभाई, वह आर्ट और मुख्यधारा के बीच की सीमाओं को मिटाने में सफल रही।
स्मिता पाटिल का नाम सुनते ही एक गंभीर और सशक्त अभिनेत्री की छवि उभरती है। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत समानांतर फिल्मों से की और लगभग पांच वर्षों तक इसी क्षेत्र में रहीं। हालांकि, मुख्यधारा की फिल्मों में उनका प्रवेश आसान नहीं था, लेकिन 'आखिर क्यों' ने साबित किया कि उनका अभिनय किसी भी लोकप्रिय फिल्म में गहराई और सहजता से समा सकता है। इस फिल्म में उन्होंने राजेश खन्ना, राकेश रोशन और टीना मुनीम के साथ काम किया और अपने किरदार में इतनी सहजता दिखाई कि अन्य कलाकारों पर ध्यान ही नहीं गया।
फिल्म की कहानी निशा शर्मा (स्मिता पाटिल) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक शादीशुदा महिला है और परिस्थितियों में फंसकर खुद की पहचान की तलाश में निकल पड़ती है। शांत और विनम्र निशा अक्सर आंसू बहाती है और अपने पति कबीर (राकेश रोशन) से उसके व्यवहार में बदलाव की गुहार लगाती है, लेकिन यही उसकी असली ताकत बन जाती है।
'आखिर क्यों' का पहला भाग निशा के आंसुओं में बीतता है, जबकि दूसरे भाग में वह खुद से मिलती है। इस दौरान वह हमेशा पुरुषों के बीच होती है, जो उसके लिए निर्णय लेना चाहते हैं। लेकिन निशा चिल्लाकर या शोर मचाकर नहीं, बल्कि स्पष्टता और दृढ़ता से अपने निर्णय खुद लेने की क्षमता दिखाती है, और यहीं उसका फेमिनिज्म प्रकट होता है।
फिल्म को देखते हुए ऐसा लगता है कि यह उस समय की अन्य फिल्मों की तरह है, जहां पत्नी गिड़गिड़ाती है। लेकिन यही 'आखिर क्यों' को एक अलग पहचान देता है। निशा अंत तक अपने पति से बदलाव की उम्मीद करती है, लेकिन जब वह नहीं बदलता, तो मजबूरी में अपने अस्तित्व की खोज में निकल पड़ती है। उसका संघर्ष और आंसू उसकी कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी ताकत का प्रतीक बनते हैं।
एक क्षण ऐसा आता है जब कबीर हैरान होकर कहता है कि उसने कभी निशा को कुछ कहते नहीं सुना। निशा का जवाब होता है कि वह पत्नी के रूप में अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त थी। यह एक झटका है, क्योंकि वह यह बताना चाहती है कि कबीर ने उसे कभी समझा ही नहीं। शर्मीला और शांत होना कमजोरी नहीं है।
निशा का किरदार शोर नहीं मचाता, बल्कि सादगी और सहजता से अपनी बात रखता है। यह एक ऐसा फेमिनिज्म है जो जोर-जबरदस्ती या आंदोलनकारी नायिका वाला नहीं है, लेकिन अपने सशक्त और संवेदनशील स्वरूप में उतना ही प्रभावशाली है।
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